Thursday, December 23, 2010

समर्पण



"पथ से भटका, मन से भटका,
फिर से संभला, अब राह वही पाने को,
जिस राह चले थे साथ कभी,
अब साथ वही पाने को,
उस मृगतृष्णा के चक्रव्यूह से,
बाहर निकलकर जाना,
अपना होता है दिल से अपना,
गैर रहे बेगाना,
जतन किये लाखों ही मैंने,
तुम सा कोई पाऊं,
नहीं मिला कोई भी अब तक,
अब तुम जैसा बन जाऊं,
चाह यही बनके तुम जैसा,
जीवन भर साथ निभाऊं,
तेरे पथ के काँटों को भी,
अब मैं फूल बनाता जाऊं,
मत रखना अब भ्रम को दिल में,
अब साथ कभी न छूटे,
जिस राह चले थे साथ कभी,
वो राह कभी न छूटे...."

Friday, December 17, 2010

द्वन्द


वर्तमान में बैठा,
कल्पना और यथार्थ की,
पारस्परिक तुलना कर रहा हूँ,
आज खुद अपने आपसे,
यह द्वन्द कर रहा हूँ.....
यथार्थ की भयानकता,
विवश करती है मुझे,
नतमस्तक होने को अपने समक्ष,
न हो ऐसा कोशिश कर रहा हूँ,
आज खुद अपने आपसे,
यह द्वन्द कर रहा हूँ.....
कल्पना के घोड़े पर सवार हो,
दूर गगन में ले जाने को,
मेरा पागल मन आतुर है,
आकाश की बुलंदियों पर पहुँचने की,
नाकाम कोशिश कर रहा हूँ
आज खुद अपने आपसे,
यह द्वन्द कर रहा हूँ.....

Wednesday, December 15, 2010

"Human Revolution" के नाम पर बरगलाने की साजिश


महात्मा बुद्ध और उनके सिद्धांतों को दुनिया भर में स्थापित करने और "बुद्धिज्म" के अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए जापानी संन्यासी (भिक्षु) निचिरेन दैशोनिन (Nichiren Daishonin) द्वारा तेरहवीं शताब्दी में स्थापित की गई कमल (lotas) के सूत्र पर आधारित अवधारणा को सोका गक्कई इंटरनेशनल (SGI) द्वारा "Human Revolution" का नाम देकर जिस तरह प्रचारित किया जा रहा है वह कहीं मानवीय क्रांति के नाम पर लोगों को बरगलाने की साजिश तो नहीं?

इससे पहले "महात्मा बुद्ध के सिद्धांतों का ये कैसा मजाक" शीर्षक से लेखक ने इस अवधारणा के विभिन्न पहलुओं पर विस्तृत रूप से ब्लॉग और फेसबुक पर लिखा था। (पढ़ने के लिए www.journalistnishant.blogspot.com पर link करें) उसको पढ़ने के बाद यहाँ जयपुर में SGI की इस अवधारणा से जुडे वरिष्ठ लोगों (Leaders) ने निर्णय किया कि इस अवधारणा का अनुसरण करने वालों के लिए जो अलग-अलग वर्ग समूह बनाये हुए हैं। (जैसे महिला समूह, पुरुष समूह, लड़कों का समूह और लड़कियों का समूह)। उसी के अनुसार जो जिस समूह में शामिल किया गया है वह सिर्फ उसी समूह में इस अवधारणा से सम्बंधित गतिविधियों को अंजाम दे सकेगा। दूसरे समूह से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होगा। इसी प्रकार जो जिस समूह से सम्बंधित है वह अपने समूह के सदस्यों को ही एक्टिविटी के लिए अपने घर बुला सकेगा या उनके घर जा सकेगा और उसका भी समय पहले से निर्धारित होगा। इतना ही नहीं इस दर्शन शास्त्र से जुडी कोई भी महिला या लड़की किसी पुरुष या लड़के के साथ एक्टिविटी नहीं करेगी और न ही उनसे कोई संपर्क करेगी, यही बात पुरुषों व लड़कों पर भी लागू होगी। गत रविवार को जयपुर के मानसरोवर इलाके में आयोजित समूह की बैठक में सीनियर लीडर ने सबको इस निर्णय से अवगत करवा दिया और कड़ाई से इसकी पालना करने के निर्देश भी दिए लेकिन दो दिन में ही इस निर्णय और निर्देशों को एक महिला ग्रुप लीडर ने ताक में रख दिया और मंगलवार को मानसरोवर में ही आयोजित डिस्ट्रिक्ट प्लानिंग मीटिंग में इस अवधारणा से जुडे एक लड़के के घर जाकर उसको अपने साथ लेकर गई। इस महिला लीडर का तर्क यह था कि पुरुषों को इस समूह से जोड़ने के लिए वह ऐसा कर रही है। मज़े की बात तो यह है कि जब इस महिला ग्रुप लीडर से यह पूछा गया कि आपने इस सिद्धांत पर आधारित किन बातों को अपने जीवन में उतारा, तो उनके पास इसका कोई जवाब नहीं था। वास्तविकता भी यही है कि यहाँ इस दर्शन शास्त्र से जुडे ये लोग अभी न तो इस सिद्धांत को पूरी तरह जानते हैं और न ही उनको अपने जीवन में उतारना चाहते हैं, इसका सबसे बड़ा उदहारण वह महिला ग्रुप लीडर हैं जिनको इस प्रेक्टिस में दो साल हो गए और वह अब तक अपने जीवन में कोई बदलाव और परिवर्तन नहीं ला सकी। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जब सीनियर लीडर्स या ग्रुप लीडर ही खुद में परिवर्तन या बदलाव नहीं ला सके तो वे दूसरों को अधूरा ज्ञान देकर क्या दिशा देंगे। इतना ही नहीं ग्रुप लीडर महिला का तो यहाँ तक कहना है कि जब भी घरमें बैठी बोर हो रही होती हूँ तो अपना टाइम पास करने के लिए किसी के यहाँ प्रेक्टिस के लिए चली जाती हूँ या किसी को अपने घर बुला लेती हूँ।

यहाँ पहले यह साफ कर देना जरुरी है कि "सोका गक्कई" क्या है? निचिरेन बुद्धिज्म पर आधारित बुद्ध महायान की एक शाखा "सोका गक्कई" वस्तुत: एक ऐसा सिद्धांत या धार्मिक आन्दोलन है जिसके जरिये एक ऐसे समुदाय का निर्माण करना है जिसकी बौद्ध धर्म में विशेष आस्था हो। इस सिद्धांत या धार्मिक आन्दोलन का जनक जापानी संन्यासी (भिक्षु) निचिरेन दैशोनिन (Nichiren Daishonin) को माना जाता है, जिन्होंने इसे स्थापित किया। विश्व के 192 देशों और राज्यों में सोका गक्कई इंटरनेशनल (SGI) के करीब 12 लाख सदस्य हैं। ऐसा इस संस्था का दावा है। विलुप्त हो चुके निचिरेन बुद्धिज्म पर आधारित "सोका गक्कई" को 1930 में जापानी शिक्षक त्सुनेसबुरो माकीगुची (Tsunesaburo Makiguchi) ने संस्थापित किया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सरकार समर्थित राज्य शिन्तो (Shinto) के विरोध के कारण इस संगठन को दबा दिया और "आपराधिक सोच" के आरोपों में माकीगुची को जोसी तोडा (josei toda) व अन्य सोका गक्कई नेताओं सहित 1943 में गिरफ्तार कर लिया। नवम्बर 1944 में जेल में ही कुपोषण के कारण माकीगुची का 73 साल की उम्र में देहांत हो गया। जापान में हुए पहले परमाणु हमले से कुछ सप्ताह पहले जुलाई 1945 में तोडा को रिहा किया गया। आने वाले वर्षों में तोडा संगठन के पुनर्निर्माण में जुट गए। 1958 में अपने निधन से पहले करीब 7,50000 लोगों को उन्होंने इसका सदस्य बना लिया था।

सोका गक्कई इंटरनेशनल (SGI) को 1975 में दैसाकू इकेदा (Daisaku Ikeda) ने संस्थापित किया, जो कि इसके अध्यक्ष हैं। उन्होंने संगठन का चरित्र चित्रण करने और इसे प्रसिद्द करने के लिए निचिरेन बुद्धिज्म के पेशेवर लोगों का समूह बनाकर उनकी सहायता से इस दर्शन शास्त्र को शांति, शिक्षा और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए विश्व व्यापी बौद्धधर्मी आन्दोलन के रूप में प्रचारित करने का काम किया, जो अभी भी जारी है। SGI का यह विश्व व्यापी बौद्धधर्मी आन्दोलन निचिरेन बुद्धिज्म की शिक्षा पर आधारित है। यह धारणा जड़वत विचारों से सम्बंधित "मानवीय क्रांति" (Human Revolution) या कह सकते हैं कि मानव में महत्वपूर्ण परिवर्तन पर बल देती है और इस कायापलट के लिए गोपनीय तरीके से निरंतर बौद्धधर्मी अभ्यास की प्रक्रिया अपनाने की शिक्षा दी जाती है। शायद इसीलिए इससे जुडे लोग समाज और मीडिया से कतराते हैं। निचिरेन बुद्धिज्म से जुडे लोगों का विश्वास है कि इस प्रक्रिया से न सिर्फ चरित्र विकास और खुद को पूर्ण संतुष्टि मिलती है, बल्कि इसमें समाज की भी बेहतरी है। उनका मानना है कि जीवन में किसी भी समस्या पर जीत पा लेने पर जिस परम खुशी का अनुभव होता है वह सिर्फ इसमें है। छोटे समूह, मुहल्ला और स्थानीय समूह की बैठक, जिसमें परिचर्चा होती है, संगठन की परंपरा का ही हिस्सा है जो SGI की मेम्बरशिप ग्रोव्थ के लिए उत्तरदायी है. ऐसा इससे जुड़े लोगों का मानना है।
यहाँ सवाल किसी अवधारणा या सिद्धांत के विरोध का नहीं बल्कि यह है कि जब यह बौद्धधर्म को प्रचारित और संस्थापित करने का आन्दोलन है तो फिर इसे मात्र एक सिद्धांत या अवधारणा क्यों कहा जाता है? क्यों इसके जरिये लोगों को काल्पनिक उदहारण देकर उनका माइंड वाश किया जा रहा है? क्यों नहीं इससे जुडने वाले लोगों को स्पष्ट किया जाता कि शांति, शिक्षा और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के नाम पर यह सब विश्व व्यापी बौद्धधर्मी आन्दोलन का एक हिस्सा है? "Human Revolution" का नाम देकर जिस तरह इसको प्रचारित किया जा रहा है वह मानवीय क्रांति वास्तव में एक ऐसे समुदाय के निर्माण करने की प्रक्रिया है जिसमें बौद्ध धर्म के प्रति विशेष आस्था हो। अगर यह मात्र एक सिद्धांत या अवधारणा ही है तो क्यों जापान में जहाँ इसके सबसे ज्यादा अनुयायी हैं, वहां "सोका गक्कई" लीडर्स को जेल में डाल दिया गया और उन पर आपराधिक सोच या विचारों का आरोप लगा? इससे हट कर बात करें तो इन सवालों का जवाब किसके पास है कि जो लोग खुद में इस सिद्धांत के अनुरूप परिवर्तन नहीं ला सके या जिनके लिए यह प्रेक्टिस मात्र टाइम पास है या जो इसके नियमों की अनदेखी करते हैं, उन्हें किस आधार पर लीडर या ग्रुप लीडर बना दिया जाता है। जब पूरे विश्व में संगठन के सदस्यों के लिए समान नियम हैं तो फिर जयपुर में उन नियमों की अनदेखी क्यों? क्यों नहीं ऐसे लोगों को संगठन से निष्कासित किया जाता जिनके लिए यह सिर्फ टाइम पास प्रक्रिया है और नियम या सिद्धांत से उनको कोई सरोकार नहीं, मात्र दिखावे के लिए जो संगठन से जुड़े हुए हैं. और जिनको इस अवधारणा का ज्ञान नहीं उन्हें किस आधार पर लीडर या ग्रुप लीडर बना दिया जाता है? क्या मात्र इसलिए कि वह ज्यादा से ज्यादा लोगों को "Human Revolution" के नाम पर संगठन से जोड़ने का काम कर सकें? ऐसे ही अनेक सवाल है जिनका जवाब इस संगठन से जुड़े लोगों के पास नहीं है. इसीलिए लगता है कि कहीं "Human Revolution" के नाम पर लोगों को बरगलाने की यह कोई साजिश तो नहीं.....

Tuesday, December 14, 2010

बिखरने के लिए...


उनके सपनों को क्यों बसाऊं आँखों में,
बिखरने के लिए,
अपने ही सपने ही क्या कम हैं,
चूर-चूर होने के लिए,
न उतर सका जो खरा उनकी उम्मीदों पे,
खता मेरी थी उनकी नहीं,
अहसास है इसका इस कदर दिल में,
तड़पने के लिए,
बसाना चाहूं सपनों की दुनिया,
बसा नहीं सकता,
फिर से बिखरने के लिए....

Sunday, December 12, 2010

बाल कलाकार प्रेरक






कहते हैं कि पूत के पैर पालने में ही नज़र आ जाते हैं। बाल कलाकार प्रेरक मिश्रा के बचपन की चंद तस्वीरें...

Friday, December 10, 2010

बाल कलाकार प्रेरक मिश्रा




बाल कलाकार प्रेरक मिश्रा द्वारा बनाई गईं कुछ पेंटिंग्स.
अपने नाम की सार्थकता को सिद्ध करने की दिशा में एक कदम...

Wednesday, December 8, 2010

प्रेरक मिश्रा अब हिंदी फिल्म "जनानी ड्योढ़ी " में....


मीडिया चक्र सिने विज़न एवं औरा विज़न के संयुक्त बैनर तले प्रख्यात साहित्यकार स्व. यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र' की कालजेयी कृति पर बनने वाली हिंदी फीचर फिल्म "जनानी ड्योढ़ी" में प्रेरक मिश्रा बाल कलाकार के रूप में प्रमुख भूमिका में नज़र आयेंगे. फिल्म की शूटिंग नए साल के प्रारंभ में शुरू होगी. फिल्म के निर्देशक राजेश सेठ हैं. राजस्थान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित इस फिल्म में रजवाड़ों के समय "जनानी ड्योढ़ी" में महिलाओं की मार्मिक दशा का चित्रण रूपहले परदे पर साकार होगा।

Sunday, December 5, 2010

मोहब्बत


है आज दूर मुझसे कल मेरे पास होगी,
मेरी ये मोहब्बत बस मेरे पास होगी,
चाहें सितम जो दे दो, ग़म लाख मुझको दे दो,
फिर भी मेरी मोहब्बत कम तो कभी न होगी,
है दिल दीवाना मेरा, हंसके सहेगा ग़म ये,
जितना परेशां होगा, चाहत भी तो बढ़ेगी,
जो ज़ख्म भी मिले तो, दिल में है उनको रखा,
सहता रहूँगा हरदम, मोहब्बत न बदनाम होगी,
है प्यार में वफ़ा ही, जीने का इक सहारा,
जिंदगी तो अपनी, अब इसके नाम कर दी,
अब शिकवा नहीं है कोई, न रही कोई शिकायत,
मोहब्बत पे आज हमने, अपनी वफ़ा है लिख दी

Friday, December 3, 2010

महात्मा बुद्ध के सिद्धांतों का ये कैसा मजाक





महात्मा बुद्ध और उनके सिद्धांतों की पालना करते हुए उनके कुछ अत्यंत निकट रहे लोगों ने कुछ अवधारणायें स्थापित की, जिनका अनुसरण आज देश केविभिन्न शहरों में अनेक लोग कर रहे हैं. लेकिन उन अवधारणाओं को पूरी तरह समझे बिना जिस तरह से महात्मा बुद्ध और उनके सिद्धांतों को अपने ढंग से प्रचारित किया जा रहा है और लोगों को अधूरा ज्ञान परोस कर दिग्भ्रमित किया जा रहा है वह बड़ा ही आश्चर्यजनक है. महात्मा बुद्ध के सिद्धांतों से सबंधित इस अवधारणाओं में से एक है कमल (lotas) के सूत्र पर आधारित अवधारणा जिसे इन अनुयायियों ने नाम दिया है "बुद्धिज्म" (Buddhism). जिस तरह गंदगी में होने के बावजूद कमल का फूल उससे ऊपर निकल कर खिलता है ठीक उसी प्रकार मनुष्य को इसमें सिखाया जाता है कि किस तरह समाज में व्याप्त गंदगी और बुराइयों से बचकर ऊपर निकला जा सकता है.

कमल के फूल को आठ शुभ प्रतीक में से एक माना गया है. इस अवधारणा से जुड़े लोग महात्मा बुद्धके कमल पर बैठे या हाथ में कमल लिए हुए रूप कि कल्पना करते हैं. इस फूल को दिल की तरह मन गया है और इसमें रंगों को भी महत्व दिया गया है. जैसे सफेद: मानसिक और आध्यात्मिक पवित्रता, लाल: हृदय करुणा और प्रेम, नीला (ब्लू): बुद्धि और इंद्रियों पर नियंत्रण, गुलाबी: ऐतिहासिक बुद्ध और बैंगनी: रहस्यवाद. हालाँकि कमल के सूत्र को लेकर चीन, जापान और कोरिया जहाँ सर्वाधिक अनुयायी हैं, एकमत नहीं हैं. इतिहासकारों का मानना है कि लोटस सूत्र के मूल पाठ खो गए लेकिन भिक्षु Kamarajiva द्वारा चीनी में 406 CE में किये गए एक अनुवाद को सही माना जा सकता है. मूल रूप से लोटस सूत्र संस्कृत सूत्र है या Saddharma-pundarika सूत्र, यह बौद्ध धर्म के कुछ स्कूलों में विश्वास की बात है कि सूत्र ऐतिहासिक बुद्ध के शब्द हैं. हालांकि, अधिकांश इतिहासकारों का मानना सूत्र 1 या 2 शताब्दी CE में लिखा गया था.

"लोटस सूत्र " की अवधारणा को किसी भी धर्म का कोई भी महिला, पुरुष, लड़का, लड़की अपना सकता है. इसमें कोई बुराई भी नहीं कि अगर किसी माध्यम से सब एकत्र और संगठित होते हैं तो, लेकिन "लोटस सूत्र " की इस अवधारणा का अनुसरण करने वाले अनुयाईयों ने अपने खुद के नियम बना रखे हैं. साथ ही इसे प्रचारित करने और इसमें लोगों का विश्वास कायम रखने के लिए झूठे उदहारण पेश किये जाते हैं. दिल्ली में इस अवधारणा का अनुसरण करने वालों ने सबके लिए अलग-अलग वर्ग समूह बना रखे हैं. जैसे महिला समूह, पुरुष समूह, लड़कों का समूह और लड़कियों का समूह. इसमें यह साफ है की अवधारणा का अनुसरण करने वाले को जिस समूह में शामिल किया गया है वह सिर्फ उसी समूह में इस अवधारणा से सम्बंधित गतिविधियों को अंजाम दे सकेगा. दूसरे समूह से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होगा. इसी प्रकार जो जिस समूह से सम्बंधित है वह अपने समूह के सदस्यों को ही एक्टिविटी के लिए अपने घर बुला सकेगा या उनके घर जा सकेगा और उसका भी समय पहले से निर्धारित होगा. हर माह दो बार समूह की सामूहिक बैठक होंगी, जिसमें चर्चा के साथ ही इस अवधारणा का अनुसरण करने के बाद जीवन में आये परिवर्तन के अनुभव को बताया जाता है और ये अनुभव बताते है पुराने अनुयायी. साथ ही अवधारण से जुड़े पुराने और प्रमुख लोग अनुसरण करन वालों को जीवन में सत्य बोलने, छल कपट नहीं करने, किसी को नुकसान नहीं पहुँचने, दिखावे से बचने, हिंसा व क्रोध का त्याग करने, वाणी का संयम रखने और दूसरों की भावनाओं का आदर करने की सीख भी देते हैं जो कि महात्मा बुद्ध के सिद्धांतों से सबंधित इस अवधारणा के अनुकूल है. अनुयायी इस सबको ईमानदारी और सच्ची श्रद्धा से अपने जीवन में अमल करें यही इस अवधारणा का मूल उद्देश्य है. इन सबको अपने वास्तविक जीवन में उतार कर ही मनुष्य अपनी मंजिल तक आसानी से पहुँच सकता है. बशर्ते वह" लोटस सूत्र " की अवधारणा को सही मायनों में अपने जीवन चरित्र में जिये. इस अवधारणा का अनुसरण करने वाला यदि नियमों का उल्लंघन या मनमानी करता है तो उसे निष्काषित कर दिया जाता है, लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं.

खैर... यहाँ हम बात कर रहें हैं महात्मा बुद्ध के सिद्धांतों से सबंधित "लोटस सूत्र " की अवधारणा का अनुसरण करने वालों की, जो किस तरह से अपने अनुसार नियम स्थापित कर महात्मा बुद्ध के सिद्धांतों से सबंधित इस महान दर्शन का मखौल उड़ा रहे हैं. एक और सवाल उठता है कि कहीं यह कोई सोची समझी साजिश तो नहीं धर्म परिवर्तन की. बिलकुल उसी तरह जैसे देश के अनेक हिस्सों में लोगों को दिग्भ्रमित कर धर्म परिवर्तन करने के कई मामले पहले भी उजागर हुए है. यह सवाल इसलिए उठा है क्योंकि इस अवधारणा से जुड़े लोगो को भी अपने घर में इस अवधारणा से सम्बंधित मंदिर जैसा कोई स्थान बनाने के प्रेरित किया जाता है और उसकी पालना भी कराई जाती है. साथ ही उनको कहा जाता है कि यह एक अवधारणा मात्र है कोई धर्म नहीं.

अब हम बात करेंगे कि इस अवधारणा का अनुसरण करने वाले किस कदर इस महान दर्शन का मखौल बना रहे हैं और लोगों की धार्मिक भावनाओं को रौंदकर कैसे उन्हें दिग्भ्रमित कर रहे हैं. दिल्ली में इस अवधारणा का अनुसरण कैसे होता है और क्या नियम अपनाये गए हैं. किन बातों पर अमल करना चाहिए यह सब ऊपर बताया जा चुका है. "लोटस सूत्र " की अवधारणा का अनुसरण जयपुर में कैसे किया जा रहा है उसको समझ कर आप खुद निर्णय करें कि महात्मा बुद्ध या किसी भी महान व्यक्ति के सिद्धांतों पर आधारित किसी भी अवधारणा का मखौल बनाना कहाँ तक उचित है? जयपुर में भी दिल्ली की तर्ज पर अलग-अलग वर्ग समूह बने हुए हैं. यहाँ भी अनुसरण करने वालों को जीवन में सत्य बोलने, छल कपट नहीं करने, किसी को नुकसान नहीं पहुँचने, दिखावे से बचने, हिंसा व क्रोध का त्याग करने, वाणी का संयम रखने और दूसरों की भावनाओं का आदर करने की सीख दी जाती है. सामूहिक बैठक भी होती हैं, जिसमें चर्चा के साथ ही इस अवधारणा का अनुसरण करने के बाद जीवन में आये परिवर्तन के अनुभव भी बताये जाते हैं, पुराने अनुयाईयों द्वारा जिनको इन बैठकों से पहले समझाया जाता है कि क्या बोलना है. इन बैठकों में जो अनुभव बताये जाते हैं वो सिर्फ काल्पनिक, सच्चाई से उनका कोई वास्ता नहीं होता. इतना ही नहीं जब मर्ज़ी हो बैठक हो जाती है. न बैठक का समय निर्धारित होता है न एक्टिविटी का, सब सुविधानुसार. एक्टिविटी के लिए कोई भी किसी के घर जा सकता है, अगर किसी अनुयायी के घरवालों को आपत्ति हो तो घर में अशांति, अनुयाईयों को इस कदर दिग्भ्रमित कर दिया जाता है कि ऐसी स्थिति में वह घर परिवार छोड़ने पर उतारू हो जाता है लेकिन "लोटस सूत्र " नहीं. यह बात सिद्ध की जा सकती है.

इसके अलावा पुरुष या लड़का किसी अन्य महिला या लड़की के साथ जाकर किसी तीसरे अनुयायी के घर एक्टिविटी कर सकता है. मन में आये जब कहीं भी एक्टिविटी कर सकता है चाहे दो मिनट और चाहे तो दो घंटे. सामूहिक बैठक की तैयारियों के नाम पर अनेक बैठक होती हैं जिसमें पुराने अनुयाईयों को ये बताया जाता है कि उन्हें अपने अनुभव के नाम पर क्या बोलना है. वो भी सिर्फ काल्पनिक और सच्चाई से परे. यहाँ अनेक अनुयायी ऐसे हैं जिनको दो साल से अधिक हो गए इस अवधारणा का अनुसरण करते, लेकिन आज तक उन्होंने सत्य बोलने, छल कपट नहीं करने, किसी को नुकसान नहीं पहुँचने, दिखावे से बचने, हिंसा व क्रोध का त्याग करने, वाणी का संयम रखने और दूसरों की भावनाओं का आदर करने जैसी किसी भी बात को अपने जीवन में नहीं उतारा है, ऐसे लोगों के लिए इस अवधारणा को प्रचारित व प्रसारित करने वालों के पास शायद ही कोई जवाब होगा, इतना ही नहीं ऐसे लोगों को ही किसी समूह का प्रमुख बनाया जाता है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आज हर धर्म व समाज मीडिया से नजदीकियां चाहता है तो फिर "लोटस सूत्र " से जुड़े लोग क्यों मीडिया या आम लोगों से बात करने में कतराते हैं. सबसे बड़ी बात कि इस अवधारणा में अधिकतर ऐसे लोगो को जोड़ा जाता है जो आर्थिक, मानसिक या शारीरिक रूप से से कमजोर हों. उन्हें बताया जाता है कि इस अवधारणा से जुड़ने के बाद उनकी ये सब परेशानी दूर हो जाएगी, लेकिन हकीकत कुछ और ही होती है. सवाल यह उठता है कि किसी एक ही अवधारणा को अनुसरण करने के लिए अलग-अलग नियम क्यों? क्यों मीडिया और आम लोगों से कतराते हैं? क्यों ऐसे लोग आज भी समूह प्रमुख बने हुए हैं जिन्होंने आज तक अवधारणा के किसी भी तौर-तरीकों को नहीं अपनाया? क्या ये लोगों का धर्म परिवर्तन करवाने की पहल है? या फिर इस सबके कारण किसी का घर बर्बाद हो? इन सब सवालों का जवाब किसी के पास नहीं है. खुद इस अवधारणा से जुड़े ज्ञाताओं के पास भी नहीं.

( यह लेख "लोटस सूत्र " की अवधारणा से जुडी एक समूह प्रमुख द्वारा दी गई जानकारी पर आधारित है, उनका खुद का मानना है कि स्वयं उनके जीवन में कुछ नहीं बदला, लेकिन दिखावे के लिए कहना पड़ता है कि इस अवधारणा को अपनाने के बाद उनको बहुत फायदा हुआ और वह इसको छोड़ना चाहती हैं क्योंकि इसके कारण उनको जीवन में बहुत कुछ खोना पड़ा, लेकिन छोड़ने पर अनेक प्रकार की बातें हो सकती जो उनके निजी जीवन से जुडी हैं और जिसके बारे में वह इस अवधारणा से जुड़े अपने वरिष्ठ लोगों से कई बार चर्चा कर चुकी हैं, जो वह नहीं चाहती )

Thursday, December 2, 2010

गम


गम
आज तो जिंदा हैं लेकिन,
कल हमारी लाश पर रोयेंगे वो भी,
हँसते हैं जो आज हम पर,
कल तुम्हारे साथ ही रोयेंगे वो भी...
दे दिए जिसने भी हमको,
प्यार में गम है गिला उनसे नहीं,
खुद ही तड़पेंगे वो कभी तो,
प्यार अपनाया हमारा क्यूँ नहीं...
दिल में ऐसे झख्म ले कर,
हो रहे रुख्सत अकेले हम नहीं,
प्यार में मिलते हैं अक्सर,
गम तो सबको उनसे बचा कोई नहीं..
कुचले जज्बातों सी सिसके,
है हमारी दास्ताँ उनकी नहीं,
ख़त्म हो जायेगा सब कल,
याद फिर हम आयें नहीं...

दुआ करता हूँ


"खुदा से दुआ करता हूँ, उम्र मेरी लगे मेरे यार को,
मुबारक इस मौके पर यही निशानी दे रहा हूँ यार को,
कि मरकर भी जो खत्म न हो,
सच्चा ही वो प्यार तो,
गैर न सही, मेरा यार तो,
याद करेगा मेरे प्यार को,
डोली होगी उसकी रुखसत और जनाजा मेरा तो,
फर्क फ़क़त इतना ही होगा,
उसे मिलेंगी खुशियाँ सारी,
हम मिलेंगे खाक को"

आज हमारे देश की हालत तो देखिए जरा


आज हमारे देश की हालत तो देखिए जरा,
कोई राम के नाम पर वोट मांगता,
कोई आरक्षण के नाम पर,
किन कारणों से बंट रहा है देश,
कौन है जो चाहता हम हों मटियामेट,
ये देखिए और सोचिये तो जरा.....
कभी मंदिर निर्माण, तो कभी आरक्षण के बारे में,
सोचिये तो जरा,
आज हमारे देश की हालत तो देखिए जरा....
इन नेताओं के कारण, देश का हो रहा है बंटाधार,
पहले देश चोटी पर था, अब है हाल बेहाल,
अगर मारना है भूत-प्रेत तो,
तंत्र जाप कीजिये,
हटाना है भ्रष्ट नेताओं को तो,
कुर्सी ले लीजिये,
देश के नौजवानों सोचिए, फिर फैसला कीजिये जरा,
आज हमारे देश की हालत तो देखिए जरा....

Monday, November 29, 2010

पहली बार ये देखा है


इंसानों की इस बस्ती में इक अजब तमाशा देखा है,
हर रोज़ यहाँ मैंने इंसानियत को मरते देखा है,
हर चीज़ है बिकती इस बस्ती में,
यह तो मैंने देखा था,
लेकिन बिकता है इन्सां भी,
यहाँ पहली बार ये देखा है,
चांदी के सिक्कों की खातिर,
हर चीज़ को बिकते देखा है,
लेकिन मज़हब भी बिकता है,
यहाँ पहली बार ये देखा है,
कहीं भूख कहीं लाचारी को,
यहाँ मैंने बिकते देखा है,
लेकिन बिकती औलादें भी,
यहाँ पहली बार ये देखा है,
सीता राधा की धरती पर,
हर एक को बिकते देखा है,
लेकिन नारी भी बिकती है,
यहाँ पहली बार ये देखा है,

Sunday, November 28, 2010

भारतीय कहलाने में शर्म क्यों


दोस्तों, कितने दुर्भाग्य की बात है कि आज हम अपने देश में ही बंटे हुए हैं. कहीं जाति, धर्म और भाषा के नाम पर तो कहीं क्षेत्रवाद के नाम पर. आखिर क्यों? हम खुद की पहचान को बिहारी, बंगाली, मराठी, गुजराती, पंजाबी, तमिल, राजस्थानी, कश्मीरी और अपने राज्य व भाषा के आधार पर साबित करने में गर्व महसूस करते हैं. बात जाति, धर्म और भाषा से शुरू होकर क्षेत्रवाद तक आ जाती है. फिर बन जाते हैं उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय और अन्य. आखिर क्यों? तब कहाँ चले जाते हैं जाति, धर्म और भाषा. क्या हम पहले एक अच्छा इन्सान और भारतीय नहीं बन सकते? क्या सिर्फ भारत-पाकिस्तान के बीच होने वाले क्रिकेट और हॉकी मैचों के दौरान ही हमारा देश प्रेम उमड़ता है? जब अमेरिका वाले अमेरिकन, जापान वाले जापानी और नेपाल जैसे छोटे से देश के लोग नेपाली कहलाने में गर्व महसूस करते हैं तो हमें अपने भारतीय होने पर गर्व क्यों नहीं? क्यों और कब तक यूँ ही बंटे रहेंगे जाति, धर्म और भाषा और क्षेत्रवाद के नाम पर. विचार कीजिये. आपकी क्या राय है....

ज़िन्दगी गरीब की


ज़िन्दगी गरीब की वो गर्म हवा है, जो साँस लेकर छोड़ दी जाती है,
ज़िन्दगी गरीब की वो गर्म सलाख है, जो जिधर चाहें मोड़ दी जाती है,
कौन पूछता है हाल इनका, ज़माने में कैसे रहते हैं,
छोटे से ले बड़ों तक के ज़ुल्मों सितम सहते हैं,
गर्दन दी दबा गर आवाज़ इन्होंने उठाई,
सिर जरा सा ऊँचा किया तो समझो, जीवन में शामत आई,
बिलबिलाते हैं लाखों कीड़े से गरीब इस जहाँ में,
फिरते हैं पागल कुत्ते से, गरीब इस जहाँ में,
कौन पूछता है कि खाने को रोटी है या नहीं,
सर्दी, गर्मी, बरसात में सिर छुपाने को, टूटा छप्पर है या नहीं,
पग-पग गरीबों को बेरहम अमीरों की, ठोकर लगा करती है,
कैसी है उनकी थाती, भूख, बेइज्जती, क्रूरता सब सहा करती है,
कौन पूछता है, मर गया तो मर जाने दो, गरीब ही तो है,
जलाने को पैसे नहीं, कहाँ से आयें,
पानी में बहा दो, गरीब ही तो है.

Saturday, November 27, 2010

कथक के मूल स्वरूप में परिवर्तन और घरानों की देन






हमारे देश में शास्त्रीय संगीत की परम्परा आदिकाल से चली आ रही है. कथक नृत्य देश का न सिर्फ सबसे प्राचीन शास्त्रीय नृत्य है बल्कि सही मायनों में अगर यह कहा जाए कि कथक भारतीय शास्त्रीय विधाओं का ह्रदय है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. राजा-महाराजा, नवाबों और बादशाहों के शासनकाल में मिले आश्रय में पली-बढ़ी इस नृत्यशैली का जितना विकास हुआ उतना किसी अन्य शास्त्रीय कला का नहीं, किन्तु इन सबके बावजूद वर्तमान में कथक कलाकारों में श्रेष्ठता के अहं और घरानेबाजी के कारण कथक नृत्य का मूल स्वरूप लुप्तप्राय: सा होता जा रहा है. कलाकारों की दृष्टि में कथक के मूल स्वरूप में समय के साथ-साथ होने वाला परिवर्तन समय की मांग है.
कथक के बारे में जब हम बात करते हैं तो पहले ये जरूरी हो जाता है कि कथक की पृष्ठभूमि में झांककर उसके अतीत के बारे में जानकारी प्राप्त करें. कथक का प्रादुर्भाव कब और कहाँ हुआ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका ठीक-ठीक उत्तर न तो आज के कथक कलाकारों के पास है न ही कथक गुरुओं के पास. प्राचीन ग्रंथों में नृत्य को ईश्वर प्रदत्त प्रक्रिया मन गया है.
देवताओं को मनोरंजन प्रदान करने के साथ-साथ सामान्य मनुष्य को वेदों का ज्ञान देने के उद्देश्य से भगवान ब्रम्हा ने नाट्यकला की रचना की, जिसे पांचवा वेद कहा गया. इस नाट्यशास्त्र में ऋग्वेद से काव्य, यजुर्वेद से भाव भंगिमाओं, सामवेद से संगीत और अथर्ववेद से सौन्दर्य तत्वों का समावेश किया गया. इस नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय में ही नृत्यकला का वर्णन है.
कथक के बारे में भरतमुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र के अलावा प्रमाण नहीं मिलने की स्थिति में कथक कलाकारों व गुरुजनों का मानना है कि कथक नृत्य में प्रथम स्थान राधा-कृष्ण पर आधारित रचनाओं का होता है, इसलिए संभवत: नृत्यशैली का प्रादुर्भाव राधा-कृष्णके युग में हुआ होगा. इस सम्बन्ध में उनकी दलील यह है कि जिस समय कृष्ण ब्रज छोड़कर द्वारका गए तो ब्रज के निवासियों ने राधा-कृष्ण पर रचनाएँ रचीं, उन्हें कथा का रूप दे प्रचलित किया गया. कथक शब्द कथा अर्थात कहानी से बना है.
प्राचीन समय में चारण और भाट धार्मिक प्रसंगों को संगीत और नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करते थे, आगे चलकर इसी संगीत नृत्य ने कथक नृत्य की परम्परा प्रारंभ की. प्रारंभ में कथक में तकनीकी और शास्त्रीय पक्ष का अभाव था लेकिन वैष्णव अध्यातम से पुनर्जागरण के पश्चात कथक को नाट्यशास्त्र पर आधारित क्रमबद्ध स्वरूप प्रदान किया गया. प्रारंभ में कथा सिर्फ पढ़कर सुनाई जाती थी, कालान्तर में इसे प्रभावी बनाने के लिए इसमें गायनशैली का समावेश किया गया और फिर इसे परिष्कृत करते हुए इसमें अंग संचालनकी अभिव्यक्ति को महत्व दिया जाने लगा.
कथक के प्रसार के बारे में अधिकतर कथक विद्वानों का कहना है कि जब द्वारका की समाप्ति हुई तो वहां के लोगों ने जीवनयापन के लिए वहां से पलायन किया तथा भौगोलिक दृष्टि से राजस्थान के नजदीक होने के कारण उन्होंने यहाँ के जोधपुर और बीकानेर क्षेत्र को अपनी कर्मभूमि बनाया. मूल स्वरूप का प्रादुर्भाव जैतारण, बींदासर में हुआ, ऐसा भी कई कथक विद्वान मानते हैं. इन विद्वानों की मान्यता है कि कथक का निकास वास्तव में जैतारण और बींदासरसे ही है जहाँ आज भी अनेक कथक परिवार हैं.
इस क्षेत्र के भात, जो कि बहियाँ रखते हैं उनके पास इन कथक परिवारों के पूर्वजों का विवरण आज भी मौजूद है. कथक वंशावलियों के अनुसार प्रारंभ में कथक करने वालों के नाम अडूजे-खडूजे हुआ करते थे जिनका विवरण भाटों की बहियों में मौजूद है लेकिन बनारस घराने के कलाकार कथक का उदभव स्थल काशी-बनारस को मानते हैं. उनका कहना है कि बनारस में मौजूद असंख्य मंदिरों के प्रांगण से कथक का प्रादुर्भाव हुआ. राजस्थान में तो तब प्रचलित हुआ जब बनारस के राजा ने कुछ कलाकारों को जयपुर दरबार में कथक के विकास हेतु भेजा.
राजस्थान में कथक को सर्वाधिक आश्रय मिला. जयपुर राजघराना कथक को आश्रय देने में सबसे अग्रणी था. यहाँ के गुणी-जनखाने में कथक नर्तकों और गुरुजनों को काफी सुविधाएँ और सम्मान मिला. इसीलिए आज भी जयपुर घराना अन्य कथक घरानों में अग्रणी और प्राचीन है. अगर यह कहा जाए कि जयपुर घराने से ही अन्य घरानों का प्रादुर्भाव हुआ है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. कथक की पारम्परिक शुरुआत का श्रेय जयपुर घराने के पंडित बिन्दादीन महाराज को जाता है, उनके समकालीन पंडित हरिप्रसाद और पंडित हनुमान प्रसाद उस समय जयपुर दरबार के गुणी-जनखाने में विशेष स्थान रखते थे. कहा जाता है कि देव-परी के जोड़े के रूप में प्रसिद्द इन दोनों भाइयों का कथक नृत्य उस समय का श्रेष्ठतम कथक था.
पंडित हरिप्रसाद के बारे में प्रचलित था कि जब वह गोविंददेवजी के मंदिर में अपने नृत्य की प्रस्तुति करते थे तो उनके पैर ज़मीन को नहीं छूते थे जिसके कारण उन्हें देव रूप माना जाने लगा, दूसरी ओर पंडित हनुमान प्रसाद को श्रृंगार पदों पर नृत्य करने के कारण परी का नाम दिया गया. कथक में श्रृंगारिकता का समावेश इसी काल में हुआ. खासतौर से लखनऊ घराने की कथक शैली पर मुग़ल सभ्यता का असर पड़ा जिससे उसमें श्रृंगारिकता का प्रभाव बढ़ गया जो आज भी लखनऊ घराने के कथक नृत्य मैं देखने को मिलता है. पंडित बिन्दादीन महाराज के बाद कथक के विकास की बागडोर पंडित जयलाल, पंडित नारायण प्रसाद, पंडित सुन्दर प्रसाद, शंकरलाल, पंडित लच्छू महाराज, मोहनलाल, पंडित महादेव, पंडित शम्भू महाराज और पंडित अच्छन महाराज ने संभाली. इस पीढी ने कथक का काफी विकास किया. पंडित जयलाल की पुत्री जयकंवर ने विरासत में मिली इस नृत्यकला को इतनी बारीकी से ग्रहण किया कि जब वह नृत्य करती थीं तो उनकी नृत्य गति इतनी तीव्र हुआ करती थी कि देखने वालों को उनकी सूरत भी नज़र नहीं आती थी. जयकंवर कथक नृत्यांगना के रूप में पहली महिला थीं जिन्होंने कथक में ख्याति अर्जित करने के साथ-साथ अन्य महिलाओं को भी इस विधा से जुड़ने के लिए प्रेरित किया, लेकिन चूरू के बींदावाटी क्षेत्र में रह रहे कथक परिवारों के विचार इससे अलग हैं.
उनका कहना है कि बिन्दादीन महाराज से पहले यहाँ की प्रथम कथक नृत्यांगना हरद्वारा बाई इंदौर के दरबार में गुलाल पर गणेश ताल में गणेश परण के साथ पांवों की थिरकन से भगवान गणपति का चित्र अंकित कर देती थीं जिनके चर्चे आज भी इन परिवारों में हैं. दूसरी पीढी के रूप में सुन्दरलाल, पंडित गौरीशंकर, पंडित कुंदनलाल गंगानी, रोशन कुमारी, पंडित बिरजू महाराज, कृष्ण कुमार महाराज, पंडित राममोहन महाराज आदि ने कथक के प्रचार-प्रसार को अपने नृत्य द्वारा जारी रखा. इन सबका योगदान अविस्मरणीय है, इन्होंने देश-विदेश में कथक को काफी लोकप्रिय बनाया. कथक की पृष्ठभूमि और विकास के बाद वर्तमान कथक घरानों और उनके कलाकारों पर ध्यान दें तो पता चलेगा कि घरानेबाज़ी और कलाकारों में श्रेष्ठता के अहं ने कथक के मूल स्वरूप को कितना नुकसान पहुँचाया है.
इन घरानों का उदय भी कलाकारों की ही देन है. कुछ ख्यातिनाम कलाकारों ने कथक के मूल स्वरूप में अपनी सुविधानुसार थोड़ा-थोड़ा परिवर्तन करके विभिन्न घरानों की स्थापना की और फिर उनका नृत्य उनके घरानों का प्रतीक बनकर प्रचलित होता चला गया, जिसे आज के कलाकारों ने आतम्सात करके और दृढ़ता प्रदान की है तथा लोकप्रिय बनाने में अपना योगदान दिया है.
जयपुर घराना
कथक की जन्मस्थली राजस्थान की इस धरा से जुडे कथक के तीर्थ जयपुर घराने में नृत्य के दौरान पाँव की तैयारी, अंग संचालन व नृत्य की गति पर विशेष ध्यान दिया जाता है, इसीलिए सशक्त नृत्य के नाम पर जयपुर घराना शीर्ष स्थान कायम किए हुए है. नृत्याचार्य गिरधारी महाराज व शशि मोहन गोयल के अथक प्रयासों के दम पर यह घराना अपनी पूर्व छवि कायम किए हुए है. इनकी शिष्याओं ज्योति भारती गोस्वामी, कविता सक्सेना, निभा नारंग, रीमा गोयल, प्रीति सोनी, मधु सक्सेना और गीतांजलि आदि अनेक कलाकारों ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जयपुर घराने का काफी नाम किया है.
जयपुर घराने को शीर्ष पर पहुँचाने में पद्मश्री से सम्मानित उमा शर्मा, प्रेरणा श्रीमाली, पद्मश्री शोवना नारायण, राजेन्द्र गंगानी और जगदीश गंगानी के योगदान को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है. इन कलाकारों ने विदेशों में भारतीय शास्त्रीय नृत्य की जो अमिट छाप छोडी है वह अविस्मरणीय है.
लखनऊ घराना
इस घराने के नृत्य पर मुग़ल व ईरानी सभ्यता के प्रभाव के कारण यहाँ नृत्य में श्रंगारिकता के साथ-साथ अभिनय पक्ष पर भी विशेष ध्यान दिया गया. श्रंगारिकता और सबल अभिनय की दृष्टि से लखनऊ घराना अन्य घरानों से काफी आगे है. इस घराने की वास्तविक पहचान बनाने का श्रेय पदमविभूषण पंडित बिरजू महाराज को दिया जाता है. उनकी शिष्याओं मधुरिता सारंग और शाश्वती सेन व पंडित लच्छू महाराज की शिष्या कुमकुम धर ने देश की शीर्ष नृत्यांगनाओं में स्वयं को स्थापित किया हुआ है. इन्होंने अनेकों बार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर कथक के पारंपरिक स्वरूप को सार्थक किया है. कुमकुम धर के साथ-साथ अन्य नृत्यांगनाएं भी अब कथक की नई पीढ़ी को तैयार करने में जुटी हुई हैं.
बनारस घराना
उत्तर प्रदेश का बनारस घराना जयपुर घराने के समकालीन माना जाता है. इस घराने में गति व श्रंगारिकता के स्थान पर प्राचीन व प्रारंभिक शैली पर अधिक जोर दिया गया. बनारस घराने के नाम पर प्रख्यात नृत्यगुरु सितारा देवी के पश्चात् उनकी पुत्री कथक क्वीन जयंतीमाला ने इसके वैभव और छवि को बरकरार रखने का प्रयास किया है एवं गुरु-शिष्य परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए प्रयासरत हैं.
सांवलदास-जानकीप्रसाद घराना
इस घराने के नाम के साथ विवाद है. इस घराने के कलाकार इसे ही बनारस घराना बताते हैं जबकि बनारस घराने के कलाकार और पंडित सुखदेव प्रसाद जिन्होंने बनारस घराने की स्थापना की, के वंशज सितारादेवी और जयंतीमाला सांवलदास-जानकीप्रसाद घराने को बनारस घराने की ही एक शाखा बताते हैं. प्रख्यात नृत्यगुरु स्व. पंडित कृष्णकुमार महाराज ने इस घराने का दो पीढ़ियों तक नेतृत्व किया और इसकी लोकप्रियता को कायम रखा लेकिन उनके निधन के पश्चात् यह घराना समाप्तप्राय: सा हो चुका है.
रायगढ़ घराना
अन्य सभी घरानों के मुकाबले नया माने जाने वाले इस घराने की स्थापना जयपुर घराने के पंडित जयलाल, पंडित सीताराम, हनुमान प्रसाद और लखनऊ घराने के पंडित अच्छन महाराज, पंडित शम्भू महाराज और पंडित लच्छू मह्जराज ने रायगढ़ के महाराजा चक्रधर सिंह से आश्रय प्राप्त करके की. इस घराने ने इन नामी कलाकारों के संरक्षण में बहुत कम समय में जो ख्याति अर्जित की वह सराहनीय है. इस घराने को लोकप्रिय बनाने में पंडित कार्तिक राम और उनके पुत्र पंडित रामलाल का योगदान अविस्मरणीय रहा है. जब रायगढ़ घराना मृतप्राय: सा हो गया तो पंडित कार्तिक राम की शिष्या रूपाली वालिया ने अपने सबल नृत्य और सशक्त अभिनय के माध्यम से इस घराने को पुन: जीवित करने का प्रयास किया. रूपाली देश की अग्रणी नृत्य कलाकारों में जानी जाती हैं. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वह रायगढ़ घराने के पर्याय के रूप में पहचानी जाती हैं.
इन घरानों के कलाकारों के अलावा कुछ कलाकार ऐसे भी हैं जिन्होंने किसी भी घराने की सीमा में बंधने के बजाए मुक्त रूप से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्यधिक यश अर्जित किया और भारतीय कथक नृत्य को नई दिशाएं प्रदान की. इस श्रेणी में मालविका सरकार और अमिता दत्त के नाम सर्वप्रथम लिए जाते हैं. कथक के इतने विकास के बाद भी जिस प्रकार विभिन्न घराने और कलाकार स्वयं को श्रेष्ठ मानकर अपनी दुर्बलता का परिचय दे रहे हैं वह कथक और कलाकार दोनों के हित में अनुचित है. भविष्य में उनकी यह प्रवृत्ति कथक के पतन का कारण भी बन सकती है.

Thursday, November 25, 2010

उन्हें आज भुलाने निकले

याद में उनकी आँख से, आंसू ये निकले,
कोशिश बहुत की रोकने की,
नहीं रुके, और ज्यादा बह निकले,
दिल के जज्बातों को छूने,
आज ये अहसास निकले,
आवारा से ये ख्याल तो,
आज मेरी परछाई को ढूंढने निकले,
उठा करते थे जो तूफान दिल में,
वो आज यादों को भुलाने निकले,
मिले हैं जिंदगी में जो उनसे,
उन्ही ग़मों को आज भुलाने निकले,
मुहब्बत में मिले जख्मों को,
जमाने से आज छुपाने निकले,
दिल से जिन्हें हमेशा चाहा,
उन्हें आज भुलाने निकले,

Tuesday, November 23, 2010

नन्हा कलाकार


मित्रों, यहाँ मुझे अपने पुत्र प्रेरक को प्रस्तुत करते हुए बड़ी ख़ुशी हो रही है. बाल सुलभ मन वैसे तो नित नयी चीज सीखने की प्रक्रिया में व्यस्त रहता है, लेकिन अगर उसकी प्रतिभा को पहचान कर उसे सही दिशा दे दी जाये तो वह भविष्य में नए आयाम स्थापित कर सकता है. इसी प्रक्रिया से गुजर रहे प्रेरक की बनाई एक कलाकृति प्रस्तुत कर रहा हूँ. आशा है आपको पसंद आएगी. वह अपने नाम की सार्थकता को भविष्य में सिद्ध कर जीवन की ऊँचाइयों को छुए इसके लिए आप सभी उसके उज्जवल भविष्य की कामना करें, यह मेरी "गुजारिश" है.

Monday, November 22, 2010

जयपुर की शान नाहरगढ़ किला






विश्व विख्यात गुलाबी नगरी जयपुर की शान नाहरगढ़ किला अपनी एक अलग पहचान रखता है. जयपुर की पहाड़ियों के ऊपर बनी इस ऐतिहासिक इमारत के साथ जयपुर रियासत की बहुत सी यादें जुडी हुई हैं. रियासत काल के दौरान होने वाले अनेक युद्धों की गवाह रहीं दो तोपें आज भी यहाँ आने वाले पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हैं. रविवार को अपने पुत्र प्रेरक के साथ इस ऐतिहासिक इमारत का अवलोकन किया. मोबाइल से कैद की गई उस क्षण की कुछ तस्वीरें.

भंसाली की "गुजारिश"


प्यार पर वैसे तो अनेक फिल्म बनती रहती हैं, लेकिन संजय लीला भंसाली की "गुजारिश" लीक से हट कर मानवीय संवेदनाओं को समुचित रूप से रुपहले पर्दे पर साकार करने की दिशा में एक सार्थक प्रयास है. ऋतिक रोशन और एश्वर्या के साथ सभी कलाकारों ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है. मसाला फिल्मों के इस दौर में इस तरह की फिल्म बनाना वाकई में एक चुनौती है जिसे भंसाली ने बखूबी निभाया. इसमें कोई संदेह नहीं कि पीड़ा को सबसे अधिक वो ही महसूस कर सकता है जिसे पीड़ा है, दूसरा सिर्फ सहानुभूति दर्शा सकता है, लेकिन फिल्म के पात्र की पीड़ा को उससे जुड़े अन्य पात्रों ने भी बखूबी समझा यही फिल्म का सबसे सशक्त पहलू है जिसका चित्रण बड़े ही भावनात्मक तरीके से किया गया है. मसाला मूवी देखने वालों को ये देख कर निराशा हो सकती कि फिल्म में कोमेडी या एक्शन नहीं है, लेकिन भावनात्मक रूप से मानवीय संवेदनाओं को महसूस करने वालों के लिए यह बेहतरीन फिल्म है. ऋतिक के अभिनय कि सराहना करनी होगी. उन्होंने पात्र को जीवन्त कर दिया और एश्वर्या ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी. कुल मिलकर भंसाली की ये "गुजारिश" दर्शकों के मन को छू लेने वाली है.

Wednesday, November 17, 2010

तलाश एक नाम की

समुद्र किनारे बैठा, रेत पर लिख रहा था,
मैं नाम तुम्हारा,
याद कर रहा था मैं, गुजरा अतीत,
सोच रहा था,
अपने बीते कल को लेकर,
एकाएक..
शांत व्याप्त नीरवता को खत्म करती,
समुद्र से, एक ऊँची तेज लहर आई,
और
मिटा गई रेत पर लिखा तुम्हारा नाम,
मिटा गई मेरा बीता अतीत,
मेरा गुजरा हुआ कल,
अब....
नहीं रखना चाहता याद,
अपने अतीत और गुजरे कल को,
पुन: तलाश करना चाहता हूँ,
वर्तमान मे
अपनी पहचान बनाने के लिए,
एक नाम की,
हाँ... एक नाम की

Tuesday, November 16, 2010

एक व्यंग

हिंदी की क्लास मे,
मास्टरजी पढ़ा रहे थे,
हिंदी को अंग्रेजी मे ट्रांसलेट करना,
बच्चों को सिखा रहे थे.
मास्टरजी की सोच थी कि वह,
हिंदी को एक नई दिशा देने का प्रयास कर,
अनर्थ का अर्थ बना रहे है,
बच्चों की सोच थी कि,
मास्टरजी आज कैसा,
अर्थ का अनर्थ पढ़ा रहे है.
गलती मास्टरजी की नहीं,
क्योंकि,
वह तो अपने पैतृक गुण बता रहे थे,
माँ देशी और बाप विदेशी था,
इसीलिए मदर टंग को फादर टंग बना रहे थे.
हिंदी को अंग्रेजी मे ट्रांसलेट कर,
पिता के प्रति अपनी पितृभक्ति,
बच्चों के सामने जता रहे थे.
.......जय हो.

Thursday, January 7, 2010

शुरुआत करो खुद से

नमस्कार,
मेरे ब्लॉग की आज शुरुआत है और मैं अपने बारे मे कुछ जानकारी दे इसकी शुरुआत कर रहा हूँ। निशांत मिश्रा नाम है मेरा। पेशे से पत्रकार हूँ। पत्रकारिता मेरा शौक और जुनून है। पिछले २३ साल से मेरी कलम चल रही है। अनेक अखबारों मे काम किया। मेरे काम को सराहा गया तो आलोचना भी हुई, लेकिन मैंने अपने काम मे कभी समझौता नहीं किया। मन को जो ठीक लगा वो लिखा। मेरी निर्भीकता मेरे लिए अभिशाप बन गई और मेरे कई विरोधी अनजाने मे ही बनते रहे। ये वो लोग थे जो मेरी बिंदास लेखनी और निर्भीकता को पचा नहीं पा रहे थे। मेरे रास्ते मे कई बाधा डाली इन लोगों ने, लेकिन मैंने परवाह नहीं की। फिर इन लोगो ने मेरी छवि ख़राब करने की नाकाम कोशिश की, लेकिन ये लोग उसमें भी सफल नहीं हुए। खैर जो बीत गया उस पर क्यों वक़्त जाया करें।
दोस्तों, अब इस ब्लॉग के माध्यम से मैं अपने विचार और लेख आप तक लेकर आऊं और आप उन पर अपनी निष्पक्ष टिपण्णी कर मुझे मंथन करने का अवसर दें, यही मेरी मनोकामना है।